गुरुवार, 14 जून 2018

उड़ चुकी नींद वाली आंखों से देखा हुआ सपना


रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी. कसमसाता बिना आंख खोले लगा जैसे अब तक नींद ही नहीं आई. या एक अजीब सी गंध ने कोंचा था कहीं अंदर. बाहर शमशान की ओर बढ़ते लोगों की आवाज तो सुनाई दी थी. लेकिन उसके बीते तो काफी देर हो चुकी. मतलब चिता को आग लगा दी गई है. ज्योथा माई नद्दी और घर के बीच बस बीघे भर का शमशान ही तो है. फिर दूर-दूर तक धूस से भरे खेत, जिनमें टमाटर, तरबूज, खीरा बोया जाता है.
तो यह तेज गंध चिता के जलने से है. लेकिन इतनी तेज जैसे नथुनों में भरी आती है. इसीलिए तो अचकचा कर उठ बैठा. चमड़े के जलने की ऐसी चिरांध तो तब भी नहीं आई थी जब अशोक भइया को ढूंढते ज्योथा माई नद्दी में नाव लेकर तीन गांव पार कर गए थे. जलालपुरा में जब ज्योथा माई तेज मोड़ लेती हैं तो नद्दी के बीचोंबीच बड़ा सा रेता बन जाता है. मई या जून का महीना था. नाव खेते-खेते जैसे गला सूखकर चोक हुआ जा रहा था. झुककर नद्दी का पानी पीने की कोशिश की तो दहलू भइया ने डांट दिया. अचानक झुकने से नाव का संतुलन बिगड़ गया था.
जैसे ही जलालपुरा के रेता के पास पहुंचे, बीच रेता में एक लाश औंधे मुंह पड़ा दिखा. दो कुत्ते और आधा दर्जन कौए जुटे हुए थे. नाव जैसे-जैसे लाश के पास पहुंच रही थी, गले का सूखापन दिमाग तक पहुंचने लगा था. पास पहुंचकर नाव से उतरे, कुत्ते और कौओं को भगाया. गले में वही रुद्राक्ष की माला थी. एक पैर कुछ ज्यादा ही सड़ गया था, जिसे अब तक कुत्ते और कौओं ने काफी नोच खाया था. लेकिन अब भी यह साफ पता लग रहा था कि वह अशोक भइया का लकवाग्रस्त पैर ही है.
समझ नहीं आ रहा यह तेज बदबू लाश से ही आ रही है या रेता के किनारे-किनारे कम पानी में उग आई काई, लंबी-लंबी अजीब सी चुखीली घांसों से उठ रही है. खैर अशोक भइया को वहीं घाट किनारे ले जाकर दाह संस्कार कर दिया गया. उस समय भी ऐसी ही चिरांध उठी थी. लेकिन आज वैसी ही गंध. फिर यह गंध आ कहां से रही है.
शमशान किनारे घर. नहीं-नहीं मैं तो राजधानी दिल्ली के अपने अपार्टमेंट में सोया हुआ हूं. ऐसा लग रहा है बिस्तर पर कई करवटें बदल चुका हूं. पता नहीं जाग रहा हूं या सोया हुआ हूं. लेकिन यह तेज चिरांध, यह जबरदस्ती नथुनों में घुसती गंध? शमशान किनारे वाला सपना तो कल देखा था. कई सालों की बेचैनी से उठती है ऐसी गंध. जैसे फेफड़ों से लेकर आंत तक जल रहा हो. वहीं से उठ रहा है धुआं और नथुनों में भरती जा रही है चिरांध.
आंतों में ऐसी कचबच तब हुई थी, जब डिग्री कॉलेज के लिए गांव से 5:50 वाली प्रेस की जीप पकड़कर जाता था. पता नहीं कितनी भोर में जीत टाउनएरिया आ जाती और अखबार बांट कर 5:50 पर वापस चल देती शहर को. लेकिन इतनी भोर में अगर पांच मिनट देर किए तो पीछे लटककर जाना पड़ता. उस एक साल में प्रेस वाली जीप में जो वाकये गहरी चुप्पी से घटे, वे अब तक मथते रहते हैं.
ठसाठस भरी हुई जीप में भी बीच में कोई मिल जाता तो बिठाने की सारी जद्दोजहद होती. लबद्दू गुरू ने बड़े ही अपनेपन से उस दिहाती महिला के लिए घसकने की सारी प्रक्रिया अपनाते हुए दो-तीन इंच बन आई जगह दिखाते हुए कहा- बइठ जइबू हो. बिटिया के हमरे गोदी में दे दा. केतना दूर हइए हौ. आधौ घंटा न लागी. कोई 14-15 साल की लड़की को लबद्दू गुरू की गोद में बैठने को कह महिला एहसान मानते हुए जीप में बैठ गई है.
सड़क है तो तारकोल की, लेकिन उसके तार बिगड़े हुए हैं. इसलिए जीप एक राग में नहीं चल पा रही. जीप के अंदर लोग एकदूसरे पर लदे-फदे कभी जीप के साथ-साथ बाएं को झुके जाते तो कभी दाएं को. जीप की इतनी बेराग सी गति पर भी कुछ यात्री झपकी के आगोश में चले ही जाते हैं. खासकर जाड़े के दिनों में. वैसे तो कोई भी यात्री सुविधाजनक सफर में नहीं है, जो सभी के चेहरों से पता चल रहा है. लेकिन लबद्दू गुरू की गोद में बैठी लड़की के चेहरे के भाव अजीब से ही हैं.
लबद्दू गुरू का बायां हाथ लड़की की जांघों पर है. लेकिन दायां हाथ नीचे कहां तक लटका है पता ही नहीं चल रहा. लड़की बार-बार दाईं ओर से हल्का सा उचक जाती है और जब-जब लड़की ऐसा करती है, लबद्दू गुरू का दायां हाथ थोड़ा सावधान सा लटक जाता है. फिर वह खुद लड़की से कहते हैं- ठीक से बइठल हऊ न, आराम से बइठा, बस आवे वाला हौ शहर. लड़की अभी भी कसमसाकर कभी दाएं को उचकती तो कभी बाएं को. जाड़े में भी ऐसा लग रहा है कि उसका चेहरा गर्मी से पिघलकर नीचे की ओर लटकता आ रहा है.
ठीक सामने बैठा मैं लड़की से नजरें नहीं मिला पा रहा. लबद्दू गुरू से तो बिल्कुल ही नहीं. हां उसकी मां को जरूर देखता हूं बार-बार. लेकिन वह जैसे कह रही हो कि उसे सब पता है, बस चुपचाप किसी तरह रास्ता कट जाए. उन कुछ सालों की जीप यात्रा में ऐसे लबद्दू गुरू बहुत मिले. सबके चेहरे जेहन में धंस गए हैं. हां लड़कियों के चेहरे हमेशा एक जैसे लगे. सबके चेहरे पर एक जैसा भाव. जैसे गिलहरी के छोटे बच्चे को बिल्ली ने अधमरा कर पंजे में दबा रखा है. छोड़ती है, फिर पकड़ लेती है. थोड़ी देर बाद गिलहरी का बच्चा छोड़ दिए जाने के बाद भी नहीं भाग रहा. उसे पता है भाग ही नहीं पाएगा. बस वही भाव उन सभी लड़कियों के चेहरों पर देखे.
लेकिन उन चुपचाप घटी घटनाओं के बाद की रातें तो इतनी बेचैन नहीं कटीं. नौकरी करते हुए सात बरस हो चुके हैं और ऐसा लगता है जैसे वर्तमान रुक सा गया है, कुछ घट ही नहीं रहा. बरसों-बरस एक सा दिन, एक सी रातें. समय आगे बढ़ ही नहीं रहा. तब जैसे दिमाग की सुई एंटीक्लॉक वाइज चलने लगी है. वे गिलहरियां अब वापस आती हैं, अपने कसमसाते चेहरों के साथ. और उन दिनों बड़े आराम से सोई रातें बदला ले रही हैं. घबराहट में मुझे ठंड लगने लगती है. खूब गर्मी में भी कूलर नहीं चलाता. मां की तरह हर मौसम में चादर ओढ़ने की आदत पड़ गई है. लेकिन यह फेफड़ों से आंत तक जलता क्या रहता है. यह चिरांध नथुनों से जाती क्यों नहीं.
पता नहीं कितनी रात और बची है. तभी दूसरे कमरे में सोया दोस्त उठकर जगाने चला आता है. उठौ, पांच बजी गवा. जाए के है न ऑफिस. रात बीत चुकी है. तसल्ली होती है. अकड़ी हुई पीठ के साथ उठ बैठता हूं. यह राजधानी है. ज्योथा माई नद्दी किनारे तुम कभी रहे ही नहीं. यहां दिल्ली में तो तुम्हें पता भी नहीं है कि शमशान कहां है. यहां दिल्ली में तुम्हारा सिर्फ ऑफिस है.

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