मंगलवार, 14 दिसंबर 2021

अनुपस्थित विस्मृतियों की कड़ियां

बेतरह किसी की याद आए
तो अपने शहर लौटना

चुपके से
गुमसुम पड़े ठीहों को निहारना
जब थक कर आराम कर रहे हों
अनुपस्थितियों को महसूस करना
विस्मृतियों की कड़ियां जोड़ना
प्रेमिका के लिए जो गुजरा ही नहीं

सरक चुके उन पलों को चुराकर रख लेना
झील का पानी जब भाप बनकर गिर रहा था तुम पर
उस नमी को संजोकर रखना
उन अनगिनत यात्राओं की पांडुलीपियां बनाना
स्वप्न में
कई सौ साल बाद देखना
सब, सच में बीता हुआ पल लगेगा
विस्मृतियां, जी चुका वक्त लगने लगेंगी
कुरेदना चटख रही खोपड़ी को

झटक कर झाड़ देना अधजले शरीर को
भूख, बहुत लगेगी तुम्हें
आंतों के गहरे कोठार में भरकर रखना

मरघट से उड़ती रेत को

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