शनिवार, 18 जून 2011

एक खीझे हुए समय में

कुछ भी लिखने से पहले मैं इतना बता दूँ कि मैं एक बेहद डरा हुआ इन्सान हूँ, हर तरह से।

लिखते हुए भी इतना डर लगता है कि जैसे पन्नों से निकलकर कोई गिरेबान ही न पकड़ ले। मार खाने और मार-पीट की बात से भी डर लगता है मुझे। पता नहीं कैसे आज के युवाओं को और मेरे संगी-साथियों को भी मार-पीट और गुंडई की बातों में इतना मजा आता है।
किसी की अनर्गल बात का विरोध करने में भी डरता हूँ मैं क्योंकि विरोध चाहे जिस चीज का हो हमेशा विरोधी को गुस्सा ही दिलाता है और गुस्से से भी मुझे बहुत डर लगता है चाहे वह कोई दूसरा करे या मैं खुद। हाँ गुस्सा मुझे भी बहुत आता है और गुस्सा आता है इस तरह गुस्सा आने पर जिसे मैं लगातार डर के मारे दबाये रहता हुँ और वह बदलता जा रहा है एक स्थायी खीझ में।
वास्तव में यह खीझ एक स्थायी भाव सा बनता जा रहा है इस देश का। जिसे देखिये वो खीझा हुआ है। जनता सरकार से और सरकार जनता से, माँ-बाप अपनी औलादों से और औलादें अपने-अपने माँ-बाप से, प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं के अन्य प्रेमियों से और प्रेमिकाएं अपने प्रेमियों की अन्य प्रेमिकाओं से। यहाँ तक की व्यवस्थाएं तक मौजूदा व्यवस्था से खीझी हुई हैं। इसलिए मैं भी खीझा हुआ हूँ बेतरह इस हर वक्त की खीझ से।
इसीलिए मैं कला के किसी भी माध्यम में आज यही खीझ खोजता रहता हूँ और समझता हूँ कि जहाँ यह खीझ मौजूद है वही ईमानदार कला है, वही ईमानदार फ़िल्म है, वही ईमानदार पेंटिंग है, वही ईमानदार संगीत है।
व्यवस्थाएं और स्थापनाएं तोड़कर ही इस खीझ को प्रदर्शित किया जा सकता है। ध्यान रहे मैं खीझ की बात कर रहा हुँ न की चीख की। चीखना-चिल्लाना या विरोध का बहुत मुखर प्रदर्शन करके ही इस खीझ को नहीं पकड़ा जा सकता , यह मात्र उसका ऊपरी रुप भर हो सकता है और हो सकता है कि बहुत मौन, बहुत सन्नाटा, बहुत खालीपन या बहुत अंधेरा भी इस खीझ को बड़ी बेबाकी से सामने लाए।
इस खीझ को गोविन्द निहलानी की आक्रोश में देखा जा सकता है, प्रकाश झा की दामुल में दिखायी देता है, अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे में देख सकते हैं, श्याम बेनेगल की वेलकम टू सज्जनपुर में थोड़ा सा आभास दिलाता है। अनुराग कश्यप की ही देव डी में और दिबाकर बैनर्जी की लव सेक्स और धोखा में यही खीझ सबसे ज्यादा मुखर होकर सामने आया है।
साँस लेने वाली हवा में भरा यह डर, इस हवा के ऑक्सीजन के हर अणु में भरा यह डर जब हमारी नसों में घुलता है तो जबरदस्ती के जीवन के साथ-साथ खीझ भी पैदा करता है।
इसीलिए हर तरफ खीझे हुए बयान तैर रहे हैं, खीझी हुइ मुस्कानें और खिझे हुए अट्टहास तैर रहे हैं। यहां तक कि खीझी हुइ मासुमियत तक खीझने की हद तक प्रौढ़ हो चुकी है।
लेकिन इस बीच खीझी हुइ गोलियां कुछ नहीं देख पा रही हैं, वे बस चल रही हैं।

बुधवार, 8 जून 2011

आधुनिक मनुष्य


               
मनुष्य आदिकाल मे जब पशु था, वह कपड़े नहीं पहनता था पर वह नंगा\अश्लील नहीं था। उसके पूरे शरीर पर बाल उगे रहते थे, जो उसे नग्नियत और मौसम से बचाते थे।
     वैज्ञानिकों का कहना है कि पशु से मानव बनने की प्रक्रिया मे जैसे-जैसे उसका तन ढँकता गया, उसके बाल कम होते गये। अर्थात बालों के आवश्यकता की पूर्ति कपड़े करने लगे ।
     परन्तु आज पूरी तरह विकसित मनुष्य के कपड़ों द्वारा लगभग हमेशा ढके रहने वाले अंतरंगों पर अब भी बाल क्यों उगे हैं ?
     जरूर आज के आधुनिक मनुष्य के अंदर से अभी तक पशुता गयी नहीं है ।  

गुरुवार, 2 जून 2011

नहीं रहना चाहतीं वे!

कट्टरपंथियों के कान दोनों
हाथों से पकड़कर घुमाते हुए
पृथ्वी को पैर के अँगूठे पर
नचाते हुए
लड़कियां, समय से कहीं आगे
भविष्य में, तेज गति से 
निकल जाना चाहती हैं।
प्रताड़नाओं, विषमताओं से भरी
इस अमानवीय दुनिया में
नहीं रहना चाहतीं वे।

बुधवार, 1 जून 2011

स्मृतियाँ विलुप्त हो रही हैं
छूटते समय के साथ  
छूट रहा मै भी 
विस्मृतियों का पुलिंदा साथ लिए 

ओपनिंग शॉट


आज हम बारह से तीन वाला शो देखने वाले थे। बारह बज चुके थे, टिकट हमारे हाथ में था, शो बस शुरु होने वाला था, या शुरु हो चुका था और हम बाहर खड़े, एक दोस्त का इंतजार कर रहे थे। हमारा शो छूट रहा था और हम हॉल के बाहर खड़े थे। मुझे बेचैनी होने लगी कि, कि...... आखिर पहला सीन क्या रहा होगा।
बचपन में हम जब कभी फ़िल्म देखने जाते थे तो फ़िल्म देखने के साथ-साथ अपने मन में उसकी कहानी को एक रोचक भाषा में पिरोते चलते थे ताकि घर पहुँचने पर दूसरे मित्रों को फ़िल्म को हूबहू और मजेदार कहानी के रुप में सुनाया जा सके। इस मजेदार और फाणू कहानी कहने में फ़िल्म के दृश्यों का सजीव वर्णन ही हमारा हथियार होते थे। या यूँ कह लें कि उन दृश्यों को बढ़ा-चढ़ा कर और भव्य अंदाज में कह सकने की हमारी क्षमता ही हमें मित्रों के बीच आकर्षण का पात्र बनाती थी। और इस कहानी के रोचक होने का सारा दारोमदार पहली सीन के दमदार होने या दमदार वर्णन पर निर्भर करता था।
वैसे हमारे बचपन की फ़िल्मों का चरित्र था भी कुछ ऐसा ही, मतलब पहला सीन दमदार, फाणू(आँखफाणू), चकचौंधू, जबरदस्त, गजब, भयानक(अन्यों के पर्याय के रुप में ही), आदि आदि जैसा ही होता था। मसलन पहले सीन में एक भव्य बंगला होता और उसके बाहर एकदम नई चमचमाती कोई आधुनिक कार(जिसे हम सिर्फ फ़िल्मों में ही देख पाते) चरचराती हुई आकर रुकती, या सीधे विलेन के किसी खतरनाक अंजाम की ओर बढ़ते कदमों से फ़िल्म की शुरुआत होती, या... अब कितना बताएं। और फ़िल्म देखते समय हम पहले सीन से ही जान लेते थे कि फ़िल्म खतरनाक(मसाले वाली) है या दर्दनाक(कलात्मक)।
लेकिन आज जो हो रहा था वह एक कहानी को शुरु होने ही नहीं देना चाहता था और मेरी बेचैनी को बिना कहानियों वाले बेचैन-बचपन की तरह व्यथित कर रहा था।