आज हम बारह से तीन वाला शो देखने वाले थे। बारह बज चुके थे, टिकट हमारे हाथ में था, शो बस शुरु होने वाला था, या शुरु हो चुका था और हम बाहर खड़े, एक दोस्त का इंतजार कर रहे थे। हमारा शो छूट रहा था और हम हॉल के बाहर खड़े थे। मुझे बेचैनी होने लगी कि, कि...... आखिर पहला सीन क्या रहा होगा।
बचपन में हम जब कभी फ़िल्म देखने जाते थे तो फ़िल्म देखने के साथ-साथ अपने मन में उसकी कहानी को एक रोचक भाषा में पिरोते चलते थे ताकि घर पहुँचने पर दूसरे मित्रों को फ़िल्म को हूबहू और मजेदार कहानी के रुप में सुनाया जा सके। इस मजेदार और फाणू कहानी कहने में फ़िल्म के दृश्यों का सजीव वर्णन ही हमारा हथियार होते थे। या यूँ कह लें कि उन दृश्यों को बढ़ा-चढ़ा कर और भव्य अंदाज में कह सकने की हमारी क्षमता ही हमें मित्रों के बीच आकर्षण का पात्र बनाती थी। और इस कहानी के रोचक होने का सारा दारोमदार पहली सीन के दमदार होने या दमदार वर्णन पर निर्भर करता था।
वैसे हमारे बचपन की फ़िल्मों का चरित्र था भी कुछ ऐसा ही, मतलब पहला सीन दमदार, फाणू(आँखफाणू), चकचौंधू, जबरदस्त, गजब, भयानक(अन्यों के पर्याय के रुप में ही), आदि आदि जैसा ही होता था। मसलन पहले सीन में एक भव्य बंगला होता और उसके बाहर एकदम नई चमचमाती कोई आधुनिक कार(जिसे हम सिर्फ फ़िल्मों में ही देख पाते) चरचराती हुई आकर रुकती, या सीधे विलेन के किसी खतरनाक अंजाम की ओर बढ़ते कदमों से फ़िल्म की शुरुआत होती, या... अब कितना बताएं। और फ़िल्म देखते समय हम पहले सीन से ही जान लेते थे कि फ़िल्म खतरनाक(मसाले वाली) है या दर्दनाक(कलात्मक)।
लेकिन आज जो हो रहा था वह एक कहानी को शुरु होने ही नहीं देना चाहता था और मेरी बेचैनी को बिना कहानियों वाले बेचैन-बचपन की तरह व्यथित कर रहा था।
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