शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

एक जगह थी



वह जगह इतनी गैर मामूली, इतनी साधारण और आकर्षणरहित थी कि वहां रहने वाला अपने रहने की ठीक-ठीक जगह बता पाने में असमर्थ रहता और कहता इसी नगर की किसी एक गली में तो है मेरा घर या कहता इसी नगर में कहीं तो है मेरा घर
उस नगर में कोई ऐसी महत्वपूर्ण जगह, इमारत, लैण्डस्केप या...या... ऐसा कुछ भी तो नहीं था कि कोई कह पाता कि अमुक से इतना दूर इस दिशा में रहता हूँ मैं या अमुक के पास वाली गली में है मेरा घर या अमुक रास्ते पर निवास करता हूँ मैं।
इतना साधारण थी वह नगर कि लोग उसके बारे में कोई बात तक नहीं करते थे, किसी की बात में उस नगर का कोई हिस्सा जिक्र नहीं पाता था। उस नगर में खोने या भटकने का डर तो बिल्कुल नहीं था क्योंकि खोने या भटकने का मतलब होता है अनजान जगह पहुँच जाना और किसी ज्ञात जगह पहुँचने का रास्ता न पता होना, लेकिन उस नगर के लोग अपने नगर को इस तरह देखते ही न थे। जिसे जहां जाना होता बस पहुँच जाता, किसी रिक्शेवाले, तांगेवाले, ऑटोवाले या बसवाले से कह देते घर चलो वह घर पहुँचा देता। किसी को जहां कहीं भी जाना होता वह उस जगह का नाम ही न लेता बल्कि जिस काम से जाना होता वह उस काम का नाम लेता और वे उसे पहुँचा देते।
न तो उस नगर की सुंदरता में खोने का खतरा था और न ही उसकी कुरूपता से खीझने का अवसर। इस नगर के निवासी किसी जगह होने की बजाय हमेशा किसी न किसी के साथ होते। घर में होते तो परिवार के सदस्यों के साथ, बाहर होते तो दोस्तों के साथ और किसी जान पहचान वाले के साथ न भी होते तो किसी अनजान ही के साथ। कोई अकेला हो ही नहीं सकता था इस नगर में।
यह नगर विस्मयकारी तरीके से समतल था। न कहीं कोई उतार न कहीं कोई चढ़ाव और सबसे आश्चर्यजनक था कि उस नगर के बाशिन्दों को यह पता तक न था कि वर्षा का पानी बहकर जाता कहां है या आपको क्या लगता है पानी इस नगर में बहता भी होगा ?
जब इस नगर के लोग किसी दूसरे नगर जाते और उनसे कोई उस नगर के बारे में पूछता जिसमें वे निवास करते थे तो वे कुछ भी बता पाने में असमर्थ रहते और कहते, वह मेरा नगर है और... कुछ नहीं

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