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मंगलवार, 17 मार्च 2009
पढ़ने वाला चेहरा
घिस चुकी हाथ की लकीरों के बीच
कोई भविष्य नहीं बचा
कोई पगडण्डी नहीं बची, भविष्य के लिए
नहीं दिखती कोई लकीर
उभर आयी हैं सारी सलवटें!
कोई भी पढ़ सकता है
बीते कल के गवाह बन चुके
उसके चहरे को .................!
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