शुक्रवार, 27 मई 2011

संदेश कविताएं


मेरे मित्र सोमू दा की एसएमएस के जरिए भेजी गयी ये कुछ कविताएं बेहद प्यारी लगती हैं मुझे। इन कविताओं की सबसे खास बात यह है कि सोमू दा इन्हें अपनी मूल कविता संग्रह में कहीं नहीं रखते। ये कविताएं उन्होंने संदेश के निमित्त ही लिखी हैं। मित्रों के लिए ऐसी उत्साह वर्धक कविताएं शायद ही कोई लिखता हो। ये कविताएं न सिर्फ मेरा हौसला अफजाई करती हैं बल्कि मुझमे एक रचनात्मक उर्जा का प्रवाह भी पैदा करती हैं।
1
मक्का हो या मूँगफली या हो कोई दाल
दुनिया मंदी को रोती, मंडी मे उछाल
खाना-पीना कठिन, हुआ हाल बेहाल
देख सनीमा पीटते दे ताल पर ताल
इस खिचड़ी सरकार ने ले ली खिचड़ी की जान
फिर भी गूँज रही कानों में इसकी मीठी तान
2
महाराजगंज के विधायक से अभी बात हुई तो
उनका कहना था
बस दो-चार दिन की बात है
खिचड़ी कर लूँ, फिर काशी स्नान
तत्काल क्षेत्र लौटूँगा
जायजा लेकर दिल्ली आता हूँ
लोकसभा मेरे लिए पार्टटाइम है लेकिन
बाहुबली हूँ तो ताकत तो दिखाउँगा ही
सवाल यह है कि बात-बात पर सीना फुलाने वाले नेता जी
फुलटाइम में क्या गुल खिला रहे हैं
हर बात पर शेर बनने और शेर ठोकने वाले नेता जी की
यही फितरत है
कैसा भी हो दाल गलाना आता है
हर मौके पर बात बनाना आता है
(कहीं से कैमरापर्सन खलिहर सींग के साथ हतप्रभ हुंडी टीवी)
3

धरती और स्त्री में एक समानता है
कि वह धरती की तरह है
और एक अन्तर कि वह धरती नहीं
वह एक समय में कई धुरी पर घूमती है
कई बार तय करती है दूरी
वहां तक जहां तरतीब में नहीं हैं चीजें
घर जैसी छोटी दुनिया में कोई स्त्री
कितने अद्भुत तरीके से धरती बनी रहती है
4
हमारे भीतर जैसे एक और हम होते हैं
वह कुछ और करना चाहता है
जीवन को खूबसूरत सपने की तरह देखता है
हम हमेशा अपने भीतर बहुत कोमल रहते हैं
अपने एकान्त में हमारा भितर हमसे बात करता है
तब हम खुश होते हैं फिर हम उदास होते हैं
फिर लौट आते हैं वापस अपना शापित, उदास, नीरस
भयावह अकेलेपन का जीवन जीने
तमाम लोगों के साथ रहते
अक्सर यही लगता है कि हम चाहकर भी
जीवन नहीं अकेलापन जीते रहते हैं
5
परिंदा होने से कहीं कठिन है आदमी होना
तो मैं बना रहा परिंदा भी
मैं अब हवा में कलाबाजी कर सकता था
फुदक भी सकता था
पर आदमी होकर भी मैं कुछ नहीं कर सकता था
मैं परिंदा बनता रहा इस तरह
भूलता रहा कि मैं परिंदा नहीं
पर आदमी के बाने में परिंदा होना और कठिन था
पंख कुतरना था
क्योंकि मनुष्य की ख्याति हदबंदियों से थी
उसे मुक्त आबोहवा से ज्यादा पसंद था बंद किले बनाना
किले के आदमी का आदेश था
देखो कहीं परिंदा न नजर आए न ही कोई परिंदा बने
इस तरह विलुप्त हो रही थी हमारी प्रजाति
एक किले के भीतर सिर्फ रह सकता है महान आदमी
कोई दो डैनों का परिंदा नहीं

6
पहाड़ हाण-मांस के नहीं होते
पहाड़ होते हैं
मैने उनसे बात की
कहा सब जो नहीं कह पाता अक्सर
इस डर से कहीं समझा न गया तो
मैने बात की
तो बड़े समझदार निकले पहाड़
7

हमारे सपनों की जब भी उतारी जाएगी तस्वीर
उसमें एक बहती नदी दिखेगी
और नदी में, आकाश और हम झाँकते पाए जाएंगे
8

मैं जीवन के सबसे गहरे निराश क्षणों में हूँ
कभी-कभी मन करता है कहीं चला जाऊँ चुपचाप
एक तो अजीब है दिल्ली भी
हर रोज सात गुस्सा उतारता हूँ
9

रोना मेरे लिए कमजोरी, आत्मदया या सहानुभूति पाने का कोई माध्यम नहीं है
यह स्वयं से तर्क है
एक जटिल यथार्थ देखने की स्वाभाविक प्रतिक्रिया
जो मुझे अपरिपक्व, दुःखी और हताश होने से बचाती है
10

अजीब दिन हैं
पर मैंने दिनों को कभी कॉफी के रंग में नहीं देखा
न कॉफी की प्यालियों में दिखी कभी घुली हुई उदासी
11

हम नींद के तलघर में थे
स्वप्न-सीढ़ियां चढ़ते-उतरते
कि तमाम दरवाजों पर धड़ाक सुबह आयी
आदत की तरह
तलघरों तक तलाशती हुई! बत्तखी चाल की
12
जीवन बहुत अजीब होता रहा
पहले की तरह न होता हुआ
शब्द कम थे
सांस कम
रास्ते ज्यादा और रक्त कम
मैं स्वप्नहीन समय में
कि खोता गया सब दिनोदिन
कहना भी चाहूँ इसे भी तो
किस भाषा मे कहूँ
13
अलाव के पास आना
आँच गर्म कर देगी
आँच एक भाषा है
जिसमें मैं कुछ कहना चाहता हूँ
रास्ते बंद हैं तुम कहाँ जाओगे
इस अजनबी संसार में
मैं कुछ सुनाऊँगा
आँच की तरह वह तुम्हें परिचित और भला लगेगा